कागज मंड गयो रे कर्मा को,
दोहा – तारा की ज्योति में चंद्र छिपे ना,
सूर्य छिपे ना बादल छाया,
रण चड़िया रजपूत छिपे ना,
दातार छिपे ना घर याचक आया।
चंचल नारी के नैण छिपे ना,
प्रीत छिपे ना पीठ दिखाया,
कवि गंग कहे सुनो सा अकबर,
कर्म छिपे ना भभूत लगाया।
कागज मंड गयो रे कर्मा को,
अब तेरो कैसे मिटे दुखड़ों।।
थारा मारा में रह गयो रे भाया,
उलझ रयो तगड़ो,
अपना स्वार्थ खातिर करतो,
भाइया से झगड़ो,
कागज मंड्गयो रे कर्मा को,
अब तेरो कैसे मिटे दुखड़ों।।
सुकरत काम करियो नहीं,
हरि से मोड लियो मुखड़ो,
करडावण में सुखा ठूठ जू,
रहे सदा अकड़ो,
कागज मंड्गयो रे कर्मा को,
अब तेरो कैसे मिटे दुखड़ों।।
जोबन चौकड़ी चुक गयो रे,
हाथ लियो लकड़ो,
चलणो दूर रयो दिन थोड़ो,
हे मार्ग सकड़ों,
कागज मंड्गयो रे कर्मा को,
अब तेरो कैसे मिटे दुखड़ों।।
महापुरुषा की बैठ शरण में,
तब सुलजे झगड़ो,
भारती पूरण भलो हो जासी,
संत शरण पकड़ो,
कागज मंड्गयो रे कर्मा को,
अब तेरो कैसे मिटे दुखड़ों।।
कागज मंड्गयो रे कर्मा को,
अब तेरो कैसे मिटे दुखड़ों।।
गायक – पुरण भारती जी महाराज।
Upload By – Aditya Jatav
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https://youtu.be/KFyOosJyIzw