वह जीवन जन्म निरर्थक है,
जिसमें प्रभु के प्रति प्यार न हो,
निष्फल वह विद्या बल वैभव,
जिससे जग का उपकार न हो।।
तर्ज – अब सौंप दिया इस जीवन का।
वैसे तो नर तन दुर्लभ है,
जिसको पाने को सुर तरसे,
धिक्कार किन्तु उस मानव को,
जो नर तन पा भव पार न हो।।
ऐसा अनुपम अवसर पाकर,
मत चूको फँसकर दुनिया में,
मंजिल तक कैसे पहुंच सके,
यदि सन्त चरण आधार न हो।।
जैसे तन की खुराक भोजन,
सत्संग आत्मा का जीवन,
सत्संगति भी वह क्या जिससे,
इस मन का दूर विकार न हो।।
कहीं बनी बनाई बिगड़ न जाय,
बिगड़ों के संग बनाने में,
बन सके न बिगड़ी जनम जनम,
यदि साँवरिया सा यार न हो।।
औरन की भूलन भटकनि लख,
तू सावधान हो ऐ कबीर,
रख नारायण प्रभु ध्यान सदा,
यह नर जीवन बेकार न हो।।
वह जीवन जन्म निरर्थक है,
जिसमें प्रभु के प्रति प्यार न हो,
निष्फल वह विद्या बल वैभव,
जिससे जग का उपकार न हो।।
स्वर – श्री राजेन्द्रदास जी महाराज।
प्रेषक – ओमप्रकाश पांचाल।
9926652202